शुक्रवार, 15 मई 2015

लघु कथा - 21 तुम्हारी यशोधरा

 तुम्हारी यशोधरा 

उम्र भर तरसती रही,आह ! कभी तो लौटोगे हे वीतरागी। वैरागी तुम शायद सदा से थे मुझ जैसी अनिंद्य सुंदरी से ब्याह की जंजीर भी तुम्हारे कदमों को विराम नहीं दे पाये। शायद मैं आखिरी चारा थी जो तुम्हारे बापू ने जिंदगी से लिप्त होने के लिए डाला था। निर्मोही जब जाना ही था तो मोह क्यों बढ़ाया ? 
   किसी ने तुम्हे बनारस के घाट पर देखा था। वर्षों पहले बापू की अंत्येष्टि कर मैंने भी यहीं धूनी जमा ली। तुम्हारी लौ तो शायद परमेश्वर से लगी होगी पर मैं तो तुम्हारी दर्शनों की ही प्यासी थी। आज सहसा तुम्हे गंगा में स्नान करते देखा,स्नान कर  तुमने अपना भगवा डाला जिसने मेरी अस्तित्व को ही नकार दिया। तुम मस्त मौले से अपने धुन में , थैले में मेरी शेष उम्र को बाँध पीठ फेर चल दिए। प्राण जो नयनों में अटके थे आज तृप्त हो मचल उठे। जोगिया ,मेरी तो तपस्या पूरी हुई ,जाने तुमको कब प्रभु मिलेंगे। मेरी तो चोला बदल गयी,समस्त प्रकृति में पसर गयी आत्मा । ध्यानरत सन्यासी तुमने चिड़ियों के कलरव को नहीं सुना ,अपने अनुगामी कुक्कुर को नहीं परखा। अब मुझसे कैसे भागोगे ?   



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