शनिवार, 26 नवंबर 2016

क्या ये लातों के भूत हैं, बातों से सचमुच नहीं समझेंगे ?

क्या ये लातों के भूत हैं, बातों से सचमुच नहीं समझेंगे ?
हर दिन की ही तरह मैं आज भी अपनी शाम की वाक पर गयी थी. इलाके में आवारा कुत्तों का साम्राज्य है सो मैं एक छोटा सा मोटा डंडा हाथ में ले निकलती हूँ ताकि यदि कुत्ते पास आयें तो बचाव कर सकूँ. मुझे आवारा कुत्तों से बेहद डर लगता है, ना जाने किधर से आ काट खाएं, सो अपनी हिम्मत हेतु इसे हथियार बना साथ रखती हूँ. संजोग से आज तक उपयोग करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, शायद डंडा देख वे पास ही नहीं आतें.
पडोसी की बेटी भी हर दिन की ही तरह उसी वक़्त निकली और दौड़ती हुई मुझसे आगे निकल गयी. दौड़ती हुई वह फोन पर किसी से बातें करती जा रही थी सो उसने ध्यान नहीं दिया कि मोटरसाइकिल पर बैठे दो लड़के उसे कुछ बोलते हुए घूरते जा रहें हैं, पीछे मुड़-मुड़ कर. मैं पीछे से देख रही थी, सच जी में यही आया कि काश इनकी बाइक उलट जाए. साथ ही ध्यान आया कि यदि इन्हें कुछ होगा तो इनके माता-पिता पर क्या गुजरेगी. कुछ ही देर में पडोसी की बच्ची दौड़ती हुई मुझसे आगे निकल गयी.
 जाने क्यूँ कुछ सही नहीं लगा और मैं भी उसके पीछे तेजी से जाने लगी. साफ-सुथरे सुंदर से उस सड़क पर जो हमारी कालोनी के पास ही है. जहां हम रोज निकलते हैं टहलने. देख रहीं हूँ कि बच्ची घबराई सी इधर उधर हो रही और मोटी मोटी गालियाँ निकालती चीख रही है और वे दोनों बाइक सवार उसके चारों तरफ घेरे बनाते हुए विभत्स्य सी अश्लील भाव लिए गोल गोल घूम रहें हैं. एक बारगी मैं सिहर गयी, ठंडी सांध्य में पसीने की बूँदें गर्दन की शिराओं से पूरे रीढ़ तक अचानक बह निकली. मैंने दूर से ही चीखा, कि क्या कर रहे हो?
पर शायद उन्हें मैं दिखी भी नहीं, या अनसुना किया. अब वे उसको छूने लगें थें. अचानक डंडे का ध्यान आया और मैंने जोर लगा उनकी तरफ चला दिया. संजोग ही था कि वह सीधे एक के सर पर जा लगा और वह बाइक सहित सड़क पर गिर पड़ा. तब तक पडोसी की बेटी उनके घेरे से आज़ाद हो वापस भागने लगी. दोनों हडबडा कर उठें और बाइक उठा भाग गएँ.
 लड़की आंटी बोल मुझसे लिपट गयी और बोलने लगी अब मैं टहलने नहीं निकलूंगी. मैं सिर्फ उसके हौसले को बढाने के लिए, उसे ये जताने के लिए कि कोई बड़ी वाकया नहीं हुई है, मैं अपनी वाक पूरी करने आगे बढ़ गयी. पर लौटती बच्ची को फिर देर तक देखती सोच रही थी कि आज जाने क्या हो जाता. सच कहूँ डर मुझे भी लगने लगा था कि कहीं वे लोग वापस ना आ जाएँ, और लोगो को ले कर ना जाएँ. मैंने अपने डंडे को उठाया, सिरे पर ताज़ा लहू चमक रहा था. आखिर कुत्तों को ही भगाने के काम आया.
 ये मानसिकता कितनी ख़राब है कि यदि कोई अकेली लड़की दिख जाए तो लड़के कुछ भी कर सकतें हैं. चुहलबाजी, छेड़खानी या फिर जो मूड आ जाये. जाने कौन होतें हैं ये लडकें जो सड़कों पर बत्तमीजी करना अपना हक समझतें हैं. क्या इनका घर-परिवार नहीं होता. मनुष्यता की भीड़ से अचानक हिंसक पशु में तब्दील होने वाले ये नर पिशाच वाकई मनुष्यता की बोली नहीं समझतें हैं. इनकी सोच पर पड़े पत्थर को, पत्थर से ही मार तोड़ना होगा. जहां दिखे जो दिखे ऐसी छोटी सी भी पाशविक प्रवित्तियों की ओर उन्मुख होते उसे तुरंत ही कुचलने की अत्यावश्यक है. जब बात नारी अस्मिता की आये तो माँ को भी अपने लाडले के प्रति mother इंडिया ही बनना होगा. लडकियां/ औरतें जिक्र करें कि उनके साथ क्या हुआ, अपने भाई-चाचा-ताऊ सबको बताएं कि कितना बुरा एहसास हुआ जब किसी ने सड़क पर छेड़खानी किया. मानवता के दुसरे छोर पर बैठें पुरूषों को शुरू से ये एहसास जागृत होने चाहिए कि उस सिरे पर बैठी निरीह सी दिखती स्त्री सिर्फ भोग्या नहीं है.
मुझसे शायद आज गलती हुई. मुझे थाने  में जा शिकायत करनी चाहिए थी. कल सुबह ही जाती हूँ.
 रीता गुप्ता 

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