१६ दिसम्बर
सुदूर कस्बे से आई वह लड़की, अपने संग अरमानों
और स्वप्नों की गठरी ले कर आई थी. महानगर में सुलभ संभावनाओं के विस्तृत आकाश ने
उसके और उसके परिवार की मह्त्वाकांछाओं की तस्वीर में सुनहरी किरण लगा दिया था.
खेत बेच पिता अपने भविष्य की किश्तों को भर रहा था और इस तरह एक बेटी पढ़ रही थी बढ़
रही थी.
उस दिन सांझ ने समय पूर्व ही सन्नाटे की चादर को
ओढ़ लिया था, शायद आने वाले शोर की तैयारी में. अपने मित्र संग फिल्म से लौटती लड़की
को जब एक बस में आगे का सफ़र तय करने का अवसर मिला तो उसने राहत की ही सांस ली कि
चलो डरावने ऑटो वाले से भला ही हुआ, क्यूंकि कुछ लोग भी जो थे उसमें. पर वह सफ़र
अधूरा ही रहा.....
बस में इंसान नहीं थे ही
नहीं, वे तो पाशविक प्रवित्तियों से लैस कुछ विकृत मानसिकता वाले, इंसान से दीखते
जीव थे. आगे का सफ़र कुकृत्य और जुल्म की पराकाष्ठा की मिसाल थी. वह पुल जिस पर बस
दौड़ रही थी वह उन आर्तनाद चीखों से तड़प अपने खंबे उखाड़ने को तत्पर हो उठी कि
कुकर्म थम जाएँ. मित्र सहित लड़की को उस महानगर में बीच सड़क पर मरणासन्न और नग्न अवस्था
में फ़ेंक दिया गया. अट्टालिकाओं के पत्थर पसीज गए, सड़क के कोलतार द्रवित हो पिघल
उठा. पर नहीं पसीजा तो सड़क पर इंसानों का मुखौटा लगाये लोगों के अंदर छुपी
सहृदयता.
हिंदी फिल्मों में देर आती हुई पुलिस की तरह फिर
सब कुछ हुआ. इलाज, धरना, प्रदर्शन, रोष ......पर सब लकीर पीटने सा ही साबित हुआ.
महानगर की खूबसूरती धीरे धीरे नेपथ्य में चली गयी. पूरे देश ने वहां की नदियों में
बहती इंसानियत के खून को देखा. बदबूदार नाले में परिवर्तित होता महानगर लचर कानून
व्यवस्था और अन्याय के पोषक तत्व से समृद्ध होता गया. दामिनी-निर्भया सिर्फ एक नाम
बन इतिहास में दर्ज हो गएँ.
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