एक सैनिक के आत्मकथा के कुछ अंश
आज टीवी पर कारगिल युद्ध के बहादुरों पर एक प्रोग्राम दिखाई जा रही थी। उनकी शौर्य और बहादुरी के किस्से सुनते - सुनते मैं अतीत में खो गया। १९६२ में मेरी पोस्टिंग मैकमोहन रेखा के पास थी ,जब चीनियों ने हमला किया था। कितनी विषम परिस्थिति थी। मेरी टुकड़ी के जवानों के पास ढंग के आधुनिक हथियार तो दूर मौसम अनुकूल कपडे तक नहीं थें। कैसे हमने कपडे के जूतों में खून जमा देने वाली ठण्ड में जीवन की अंतिम शर्मनाक लड़ाई लड़ा था। राजनैतिक उठापटक का अखाडा बना रक्षा मंत्रालय ने हमें मानों मरने ही भेजा था। पता नहीं क्यों उतनी जलालत भरी हार और बर्फ में गल गए पैरों के साथ मैं अपाहिज जिन्दा रह गया। जीती हुई बाज़ी के जवान तो हीरो बन गएँ पर हारी हुई लड़ाई के हम जैसे जवान पल पल आज भी जीवन से मात ही खा रहें हैं।
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