जीवन
–मृत्यु के अंतर्द्वंद में फँसी रंजू को देख लगता नहीं था कि वह बीमार भी है .जाने
कितने मित्र थे उस हंसमुख के ,कोई बोलता, “रंजू दुबली हो गयी हो ”,तो झट बोलती,”
डायटिंग पर हूँ”.
मौत
का साया पड़ चुका था ,जिन्दगी अपनी अस्तित्व की आखरी लड़ाई लड़ रही थी .इस कशमकश में
रंजू रेत की मानिंद फिसलती जिन्दगी को अपनी जिजीविषा से नम कर रही थी ,गीले रेत के
गोले बना रही थी .शाश्वत मृत्यु को थोडा परे धकेलती रंजू जीने की कोशिश में, खुशियों
के बुलबुले उड़ा रही थी .मालूम था मृत्यु ही उत्तर है पर जिन्दगी के प्रश्नपत्र को
धीमी गति से हल कर रही थी .जीवन-मृत्यु के उलझे द्वंद को हौले से सुलझा आज दो पैरों
पर अस्पताल से घर जाती रंजू ,डॉक्टरों की
उस आशंका की धज्जियां उड़ा रही कि उसकी अगली यात्रा चार कंधो पर ही संभव है .
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