गुरुवार, 7 जनवरी 2016

द्वंद

द्वंद
थक गया था वह सामंजस्य बैठाते-बैठाते .दिल की सुनता तो दिमाग शोर मचाने लगता और दिमाग की बताई राह को चुनता तो दिल मानों उछल मुंह तक आ जाता .कभी उसे महसूस होता कि दिल-दिमाग दोनों की आवाज को अपने कर्तव्यों की हथेलियों से ढंक अनसुनी कर दे .कर्तव्यों की भारी बेड़ियाँ उसके दिल को मसलने को तत्पर थीं . ब-मुश्किल अपने नन्हे दिल को थाम एक राह चलता कि दिमाग उसे गलत साबित करने हेतु किसी और मार्ग की तरफ इंगित करने लगता . आकांक्षाओं के भारीभरकम सूटकेस उसकी हथेलियों को छलनी कर रहीं थीं . मंजिल सामने होते हुए भी वह मार्ग नहीं चुन पा रहा था . इस द्वंद से बाहर निकलने के लिए अब उसे किसी चौथे पथ की आवश्यकता थी और वह आस भरी नजरों से ऊपर देखने लगा . उसकी तरफ निगाह करतें ही मानों सारे गिरह खुल गएँ , गुत्थी सुलझने लगी और चेतना जागृत हो दिल, दिमाग और कर्तव्यों की लगाम को थाम कर साध लिया.



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