सोमवार, 14 मार्च 2016

दर्द का रिश्ता

दर्द का रिश्ता

वर्षों से झूठ-मूठ साथ चलने और रहने की नौटंकी करते दोनों थक चुके थें. ताउम्र परिवार –समाज के लिए जीते जीते दोनों खुद को भूल चुकें थें. उम्र के इस चौथेपन में ना परिवार का ना समाज का कोई शेष था. दोनों ने गलें लग करएक दूजे के कान में फुसफुसाया,

“ वक़्त ने कुछ यूं हमें मिलाया कि हमदोनों के ही सपने अधूरे रह गएँ. विदा.....जी लो अपनी अधूरी कामनाओं को. दर्द के इस रिश्ते से तुम्हे आज़ादी मुबारक हो ”

दोनों चल पड़े विपरीत दिशा की ओर और दोनों का मन भूतकाल की ओर. किशोरावस्था के प्रारम्भिक चरण में ही दोनों के माँ-बाप ने उनके स्वप्नों की कब्र पर उनकी गृहस्थी की नींव को डाल दिया था . दोनों ने तय किया था कि जिसदिन जिम्मेदारिया पूर्ण होंगी हम अपनी अपनी जिन्दगी स्वतंत्र हो जियेंगे. अंतहीन पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच दो बेमेल दिल –दिमाग कसमसाते रहा सदैव आज़ादी की राह तलाशता रहा.
बुड्डी हो चली आँखे स्वप्न देख रही थी, डॉक्टर बनने का क्यूंकि गाँव में कोई महिला डॉक्टर नहीं है.
मोतियाबिंद से धुंधली हो चली बुड्डें नयनों में भी एक स्वप्न तैर रहा था विश्व स्तर का मुक्केबाज़ बनने का.
अपने विचारों में गुम दोनों चले जा रहें थें कि देखा दोनों आपस में ही टकरा गएँ हैं. पता ही नहीं चला कि कब कदम मुड गएँ थें उसी ओर जिससे आज़ाद होने ही भाग रहें थें.


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