आइना पहले सी सूरत मांगे
कल रात ही रामप्रवेश बाबु को उनका बेटा हमेशा के लिए अपने पास रहने को लाया था . सुबह से वह उनकी सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिए परेशान हो रहा है. उनका बिस्तर, पंखा, शौचालय ,पानी की बोतल, दवाइयां इत्यादि सब इन्तेजाम करने में वह तत्पर दिख रहा था. पत्नी के जाने बाद वर्षों उन्होंने एकाकी जीवन बिताया था, अब चलने फिरने में भी परेशानी हो रही थी, सो कोई चारा नहीं था साथ रहने के सिवा. उन्हें याद हो आया कि उन्होंने भी अपने पिताजी की अंतिम वक़्त में बहुत सेवा किया था. उसका प्रतिफल अपने पुत्र के हाथों पा रामप्रवेश बाबु धन्य धन्य हो सुखान्वित हो रहें थें, कि तभी बेटे की कर्कश वाणी ने धरातल पर ला पटका.
“कमीनी, ये भी कोई चाय है ...थू. इतने सालों में तुम्हे ढंग की चाय बनानी भी नहीं आई. अब बाबूजी को ऐसी चाय मत देना.” कप पटकने की आवाज के साथ बहु के सुबुकने आवाज आने लगी.
“अब सुबह सुबह ये नखरें ना दिखाओ, पहले बढ़िया सा चाय बनाओ और फिर कोई ढंग का नाश्ता.” फटाक की आवाज आई , शायद कुछ और टूटा था.
तभी बहु चाय का ट्रे लिए आई. सूजी हुई लाल आँखें और शरीर पर पड़ें नील बहुत कुछ बयान कर रहें थें. अचानक अतीत पूरी बेशर्मी से बदन उघाड़ उनकी आँखों के समक्ष अवतरित हो गया. वो भी तो अपनी पत्नी को ठीक ऐसे ही प्रताड़ित करतें थें जैसे उनका बेटा आज कर रहा है. हमेशा उसे पैरों की जूती ही समझा था. आजिज़ आ कर उसने एक दिन अपनी इहलीला को समाप्त कर लिया था. उसके जाने के बाद उन्होंने एकाकीपन का एक लम्बा कारावास झेला था. रामप्रवेश बाबु ने हमेशा घडी उलटी कर पश्चाताप करने की नाकाम कोशिश किया था. उनके मन से आवाज आई,
“शायद यहाँ कोई गुंजाइश शेष है, कोशिश करनी होगी.”
वक़्त आज उनके विकृत अक्स को आईना दिखा रहा था और वे उससे पहले सी सूरत की भीख.
जैसी करनी वैसी भरनी। लघु कथा उत्तम।
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