तीर्थयात्रा
एक चोर राजमहल से हीरों का कीमती हार चुरा कर भागा. सिपाहियों ने उसे भागते देखा तो पीछा करने लगे. वह भागता हुआ साधुओं की एक मंडली में घुस गया जो कीर्तन करते तीरथ यात्रा पर जा रहें थें. सिपाहियों ने उसे चारों तरफ देखा पर साधुओं के झुण्ड में नहीं खोजा. चोर उन्ही के संग हो लिया, पर हीरों का हार अभी तक उसकी मुठ्ठी में था. रात साधुओं ने गंगा किनारे डेरा डाला . चोर चुपके से हीरों के हार को एक साधु के कमंडल में डाल दिया. उन्ही साधु के बगल में पड़ा रात भर वह हीरों की रखवाली के साथ प्रवचन सुनता रहा. सुबह अचानक नींद खुली तो देखा साधु कमंडल लिए नदी तीर जा रहें. भागता भागता पहुंचा तब तक वे उसमें जल भर सूर्य को अर्ध्य दे चुके थें. ब-मुश्किल गोता लगा हार को निकाला, जो जल के संग प्रवाहित हो चुका था. वहां से निकला तो एक साधु के डलिए में छुपा दिया फूलों के बीच और उनके संग संग चलने लगा. साधु बेशकीमती हार से बेखबर फूलों भरा डलिया देव की मूर्ती पर चढ़ा दिया. देव शीर्ष से हार को निकाल चोर एक तीसरे साधु के बिछौने तले छुपा दिया जिसे उन्होंने अगली सुबह बेखबरी से चादर संग झाड दिया. चोर उनके संग संग तीर्थ भी करते जा रहा था. जगह जगह राजा के सिपाही होतें थें सो वह निकल भागने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. वह हीरों के हार को उन वैरागियों के पास छुपाने में असफल होता रहा. आखिर तीर्थ यात्रियों का दल लौटने लगा और चोर भी उनके संग संग फिर से राजमहल पहुँच गया. राजा खुद उठ कर आयें मण्डली का स्वागत किया, उनके चरण को पखारा. चोर के चरण को भी राजा ने धो कर सम्मानित किया. जब साधु विभिन्न मंदिरों के प्रसाद और फल-फूल राजा को देने लगें तो उसने चुपके से हार को उसमें ही डाल दिया और निर्भीक हो कर राजमहल से निकल गया पर एक पवित्र परिवर्तित ह्रदय के साथ. संसार को साधने वाले उन साधुओं की संगत में वह जान गया था उन चोरी किये हुए कंकडों की कीमत.
वाह बहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएं