गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

पंचिंग-बैग

पंचिंग-बैग 
वह खुद को घर की धुरी समझती. उसे लगता कि घर के हरेक सदस्य की ख़ुशी के स्तर को बनाये रखनी ही उसकी जिम्मेदारी है. उसे लगता सब की जिन्दगानियां उसके चारों तरफ घूम रही है. जो दुखी होता वह उसके साथ जुड़ जाती, उसकी मानसिक संबल बन विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का साहस भरती. अपने अपनों का खोया आत्मविश्वास लौटा लाने को वह एडी-छोटी एक कर देती. सब उसे एक बेहतरीन काउंसलर कहते. वह फूली नहीं समाती. ससुर के मरने के बाद अपनी सासु माँ को उसने खूब संभाला था. दफ्तर में पति पर अनैतिक कार्यों का दबाव बन रहा था तो वह ढाल बन खड़ी हो गयी कि चाहे नौकरी चले जाये गलत नहीं करना है. कितना सहा था उसने उनदिनों अपने पति के दुर्व्यवहार को, ये समझ कि ये मुझ पर अपने दफ्तर का भड़ास निकाल बस हल्का हो रहें हैं. बेटा हर इंटरव्यू में असफल होता जा रहा था, हर रिजल्ट के बाद उसकी उठा-पटक, तोड़-फोड़ को सहेजती संभालती और अगली के लिए हौसला का हवा भरती.
परन्तु उस दिन से उसे अपने होने पर पहली बार शक हुआ था, जब सासु माँ को नन्द को फोन पर बोलते सुना था,
“ आजा यहीं पर दो महीने के लिए जब तक दामाद जी विदेश से नहीं लौट आते, ये तो निरी गाय है चाहे जितना हांक लों. अरे इसके लिए कुछ लाने की भी जरूरत नहीं है पर बड़ी भाभी के लिए कुछ महंगी उपहार जरूर लाना. बड़े घर की बेटी है वह.”
उस के स्वप्निल अस्तित्व पर अगली आघात उसके पति ने पहुँचाया, कि वह उन के दफ्तर की पार्टियों के लिए सर्वदा अनउपर्युक्त है.
बेटा के इंटरव्यू का रिजल्ट आने वाला था, सुबह से रात हो गयी दीपक जला प्रार्थना करते. आधी रात को जब सारे दोस्तों के साथ खुशिया मनाने के बाद उसे उसकी सफलता की सूचना मिली तो जाने क्यूँ अचानक उसके मन में जो धुरी होने का गुमान था ध्वस्त हो गया.
रिश्तों के बासीपन और अपनों की उदासीनता ने उसे उसके निरर्थक अस्तित्व का एहसास करा दिया. खंड-खंड विखंडित होती उसकी व्यक्तित्व को पता चल गया कि वह एक “ पंचिंग बैग” से इतर कुछ नहीं.





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें