छोटी बहन की शादी थी। माँ-पापा का उत्साह देखने लायक था। कितने महीनों पहले से सब तैयारी में लगे थे। मैं उत्सुकता से सब विध -व्यवहार देख रही थी ,
अच्छा हल्दी ऐसे लगया जाता है, पांच सुहागिनें गीत गाते हुए लगाती हैं।
ओह मड़वा ऐसे गाड़ा जाता है, चाचा ताऊ मिल कर बांस लगाते हैं मंगलाचार के साथ।
मैंने जिंदगी में ये सब नहीं पाया, ये भी तो एक सुख है। विजातीय से अपने विवाह के निर्णय ने मुझसे कितना कुछ छीना, कितना अकेला कर दिया मुझे. वर्षो बाद आज घर आने की स्वीकृति मिली थी परन्तु वह भी अकेले। सबसे मिलने की ख़ुशी में मैं सुधाकर के बिना ही चली आई थी। बारात दरवाजे लगी सभी महिलाएं परिछावन के लिए मंगल गीत गाते बढ़ी,
"अरे मैं भी तो सुहागिन हूँ दूल्हे की परिछावन तो मैं भी करुँगी", सोचती मैं हुलस कर आगे बढ़ने लगी कि तभी माँ ने बाहँ पकड़ पीछे धकेलते हुए कहा,
"दूर रह"
अब मुझे एहसास हुआ कि अछूतों की तरह मुझे किसी विध व्यवहार में शामिल नहीं किया जा रहा है। मैं पीछे हटते गयी ,भीड़ से निकल गयी,
"कौन हैं ये लोग, मैं कहाँ आ गयीं हूँ?"
सामने मंडप में हवन कुण्ड देख ठिठक गयी और वर्षों पहले पौराणिक कथाओं में मायके में अपमानित शिव -पत्नी 'सती' याद आ गयीं।
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जवाब देंहटाएंवाह !
जवाब देंहटाएंचलो वापसी करने वालों को देखते हुए एक कहानी तक तो पहपचेॉ अपन .कल से खंगालते हैं आपका ब्लॉग...ओह यानि अब आज से गीगी.
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