सत्यकाम
( आहुति विशाधारित )
"मिस्टर आलोक, मैंने कई दिनों पहले ही आपको ठेकेदार रामस्वरूप की फाइल दी थी. आपने अभी तक उसे साइन कर निपटाया क्यूँ नहीं ?" बॉस ने कड़क भाव भंगिमा अख्तियार किये हुए तलब किया.
सामने की कुर्सी पर बैठा रामस्वरूप खीसें निपोरता, अपनी उपस्तिथि मात्र से कमरें में दमघोंटू बईमानी के रंग प्रलक्षित करता हुआ सा वीभत्स हंसी संग तोंद हिलाते बोल उठा,
"साहब मैंने तो आलोक जी को कई बार मोटे लिफाफे की पेशकश की है पर ये तो मुझे बैठने तक नहीं बोलतें हैं".
"क्यूँ मिस्टर आलोक लगता है इस जगह से आपका मन भर चुका है, बहुत लोग सहर्ष यहाँ आने को उत्सुक हैं", बॉस ने उसी कड़कपन से कहा.
"प..र ...प..र..सर जिस काम को इन्होनें किया ही नहीं है उसके बिल पर मैं कैसे हस्ताक्षर कर दूँ?" आज सत्य हकलाने लगा था.
"साहब लगता है इन्हें पैसे काटते हैं, हें हें....", विभत्सता बेशर्मी से केबिन में विस्तातरित होने लगी.
"सुनो जी हमारा खुद का घर कब होगा? पापा मैं भी स्मार्ट फोन लूँगा. बेटा अब रमा की शादी हो जानी चाहिए.....", बहुत सारे आवाजों की अंधड़ में आलोक अब घिरता जा रहा था. इच्छाओं के शेष नाग फन काढ़ उसकी कलम की नोक पर बैठ गएँ. 'काम हो गएँ फण्ड दे दिया जाये', लिखते हुए हर अक्षर हवन कुंड बन उसके विचारों और सिंद्धांतों की आहुति लेने लगें. सत्यकाम देशभक्त युवा आलोक, अपने ही आदर्शों की हवन प्रज्ज्वलन से कलुषित हो उठा. तभी हस्ताक्षर करती उसकी कलम की नोंक टूट गयी,
"सर मेरा तबादला करवा दें", कहता केबिन से निकल गया. ईमानदारी की घृत और निर्भीकता की हवि ने उसकी अंतरात्मा के साथ साथ पूरे वातावरण को सुरभित कर दिया.
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