मंगलवार, 24 नवंबर 2015

अंधी -दौड़

अंधी -दौड़


भरे -पूरे परिवार के  रमेश को बचपन से ही इच्छा थी कि खूब बड़ा आदमी  बनना है . चंद सिक्कों संग गांव से सफ़र शुरू किया और जा पहुंचा शहर . माँ-बाप -भाई बहन वहीँ छूट गए ,उसके साथ कदम मिलाने में वे सब पिछड़ गएँ . शहर में बने कुछ संगी-साथी पर उसके आगे बढ़ने की जूनून में , वे  उसके साथ कदमताल नहीं मिला सकें .मुठ्ठी भर सिक्कों संग वह जा पहुंचा महानगर .तरक्की की उसी दौड़ में ,उसे मिली वह जिससे वह प्यार करने लगा . अलग अलग दूरी तय कर आतीं दोनों की महत्वाकान्छी पटरियां ,कुछ क्षण को थम गयीं उस स्थान पर जहाँ उनका मिलाप हुआ . पर "और" - "और " की भूख ने , दोनों को विवश कर दिया ,तरक्की की   अगली दौड़ की तरफ  और इस तरह  महत्वाकांछा की पटरियों ने दोनों को अलग कर दिया .
               अब जेबें-बैंक सब भर चुके  थे  पर रिक्त हो चुका था  मन . अब तरक्की की तरफ दौड़ना आदत बन चुकी थी ,अपने आगे चलने वाले को दौड़ कर पछाड़ना विवशता थी .अंधी अंतहीन तरक्की की ओर अग्रसर रमेश का मन अब लौट लौट उस स्थान पर अटक जाता जहाँ कभी कोई अपना मिला था . पर मिलती सिर्फ तन्हाई ,वही तन्हाई इन्तजार करती हुई मिलती जो उसने कभी  अपने अपनों को दिया था .



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