मंगलवार, 12 जनवरी 2016

समर्पण

समर्पण
कुशल का चयन सरकारी नौकरी के लिए हुआ . आदर्शों और ईमानदारी के शस्त्र से लैस जब उसने अपना कार्य भार संभाला तो वहां व्याप्त भ्रष्टाचार को देख उसे वितृष्णा होने लगी . एक से एक घाघ बाबू और अफसरों से सुसज्जित उस रणक्षेत्र में अकेला कुशल, अभिमन्यु सा मानों जूझने लगा . हर दिन पचासों गलत पेपर उसके सामने आतें. जिस काम की कोई जरूरत नहीं उसकी टेंडर निकलाने का हुक्म आता. सौ रुपये के सामान का हज़ार के बिल पर हस्ताक्षर करने का दबाव आता. अर्जुन पुत्र सा कुशल, हर वार से बचता-बचाता रहता खुद को. एक दिन उसके एक वरिष्ठ अफसर ने उसे अपने केबिन में बुला,खूब शाबाशी दिया. पीठ ठोकते उन्होंने कहा,
"कुशल तुम्हे देखता हूँ तो मुझे अपने दिन याद आ जातें हैं. मैं भी बिलकुल तुम्हारी ही तरह आदर्शवादी था. देखो ! तुम कभी बदलना मत, तुम जैसे नौजवान ही इस देश का भविष्य बनायेंगे "
कुशल की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था,धन्यवाद बोल वह मुडा, तो बॉस ने कहा,

"देखो ये कागज ऊपर से आया है , मंत्री जी के भतीजे का बिल है "

"पर सर ये काम तो हुआ भी नहीं है ,फिर ...."

"अब देखो इनका काम नहीं होगा तो हमसब पर गाज गिर जाएगी, ऐसा करो तुम बस इसे निकाल दो फिर तुम्हे तुम्हारे अंतर्मन के खिलाफ नहीं जाने कहूँगा "

चक्रव्यूह से निकलने के मार्ग अब अवरुद्ध हो चुके थे . उस पहली गलत हस्ताक्षर से फंसने से बचने हेतु कुशल बार बार कीचड़ की दल दल में उतरता गया. पहले दबाव से, फिर डर से ...बाद में समर्पित भाव से . अभिमन्यु ने दुर्योधन से हाथ मिला लिया था .



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