गुरुवार, 2 जून 2016

ग़लतफ़हमी

मृत्युशैया पर पड़े महापंडित रावण ने विभीषण की तरफ घृणा से देखते हुए कहा,
"कुलघाती तुमने दुश्मन के साथ षड्यंत्र रच मुझे धराशाही कर दिया".
" भैया मैंने सिर्फ अपना फर्ज निभाया है",
 स्वर्ण नगरी का भावी अधिपति ने  विनम्रता से करबद्ध उत्तर दिया.

"रे कुल नाशक, आने  वाली पीढ़ियाँ  तुम्हे माफ़ नहीं करेगी और अपने पुत्र का नाम कभी कोई विभीषण नहीं रखेगा",
यमद्वार उन्मुख दशानन ने अनुज को कोसते हुए कहा.

"मैंने देश हित में श्री राम से संधि किया न कि  षड्यंत्र रचा.  मुझे कुल नाशक सुनना मंजूर है पर "देश-द्रोही" कदापि नहीं. मैंने भाई-भतीजावाद से परे देशहित का सोचा. मेरा देश अक्षुण रह गया और देवाशीष पा अमरत्व भी पा गया ",

सजल नयनों से विभीषण ने  अपनी आखरी सफाई देनी चाही परन्तु तब तक स्वार्थ और अहंकार ने महापंडित की सारी पंडिताई को  धता बताते हुए प्राणों का हरण कर लिया था.  अग्रज की निष्प्राण-ठठरी सन्मुख  विभीषण किमकर्तव्यविमूढ़ हो काल की गति समक्ष  अबूझ ही रह गए.

 विचार मौलिक और अप्रकाशित
साभार रामायण


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