शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

लघु कथा ( 18 ) दूरदर्शी

दूरदर्शी 

दूरदर्शी
        धरती से आकाश छूने की अपने दूरदर्शी पिता के स्वप्न को साकार कर कल्पना अपनी पहली उड़ान के पश्चात  अब लौटने की राह पर थी।अपने अंतरिक्ष यान से उस ने धरती की तरफ निहारा। वहीँ कहीं मेरा शहर करनाल है ,ये सोचते कल्पना अतीत में चली गयी जब वह अपने पिताजी से हर वक़्त  पूछा करती थी कि वह बड़ी हो कर क्या बने। एक दिन उसकी उत्सुकता को मंजिल मिल गयी जब उसके पिताजी ने उसे खगोलीय दूरबीन से अंतरिक्ष की  सैर कराई थी। पिता ने स्वप्नों को जुगनू बना उसकी मुठ्ठी में कैद कर दिया था। 
  आज वक़्त आ गया था ,उसने धीरे से मुठ्ठी खोला जुगनू रंग बिरंगी तितलियों में तब्दील हो पूरे ब्रह्माण्ड में उड़ चले। उसकी पिता की कल्पना अब केवल कोरी नहीं थी बल्कि साकार हो समस्त अंतरिक्ष को विजित कर चुकी थी। 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें