बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

नेतागिरी




नेतागिरी
( नए  लेखन नए  हस्ताक्षर  मंच  पर  प्रथम आई चित्र कथा )

उन सातों पुलिस कर्मियों को शायद आज के बाद चैन नहीं मिलने वाला था. सातों देश के विभिन्न भागों से चुन कर लाये गए थें, मंत्री  जी की  विशेष सुरक्षा हेतु. परन्तु उन्होंने शायद अपनी ड्यूटी को बहुत हलके से लिया था. कहाँ तो  परिंदा भी पर न मार सके वाली सुरक्षा का वादा किया गया और यहाँ आदरणीय मंत्रीजी  ही सशरीर गायब थें. सभी पुलिसकर्मियों ने  लोहे की बड़ी गेट के पास ही खड़े रहने की बात दुहराई थी, ये अलग बात थी कि उपस्तिथ रहने और सतर्क रहने में फर्क हो गया था. जेलनुमा ऊँची चारदीवारी और बंद लौह द्वार से नेताजी का गायब हो जाना एक पहेली बनी हुई थी. पूरे देश में पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लग चुका था. धडाधड पुलिस के आला अफसर सस्पेंड किये जा रहें थें. देश में मानों अराजकता और भय का राज कायम हो गया था.
        अपने बंगले से हजारों मील दूर नेताजी, एक कॉटेज में चिकन की बोटियाँ चूसते हुए हड्डी को थूका और कहा," बीस बरस मैंने इन्तेजार किया, जब इन्ही पुलिस वालों ने मुझे मुन्नी बाई की कोठी से गिरफ्तार कर सारे देश में बदनाम किया था और मुझे राजनैतिक सन्यास लेने को मजबूर. चलो रे, लगे हाथ तिहाड़ में बंद अपने मित्रों को भी आज़ादी दिलवा दी जाए. आखिर मंत्री महोदय के अपहरण का कुछ मूल्य तो होना ही चाहिए"
सुदूर जंगल का वह कॉटेज नर पिशाचों के अट्टहास से गूँज उठा.



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