रविवार, 28 फ़रवरी 2016

मनमीत

मनमीत 


मैंने तो सब्जी में नमक बिलकुल सही डाला था, खुद चखा था मैंने बना कर. जरूर किसी ने मुझे डांट खिलाने हेतु बाद में मिला दिया”
“मैं कहती रह गयी पर सासु माँ ने मेरी नहीं सुनी”
“पिताजी आयें थे, कितना मन था सावन में माँ के घर जाती पर ससुरजी ने मना कर दिया”
“इनको भी कोलकाता गए कितने दिन हो गए, जाने इनकी परीक्षाएं कब ख़तम होंगी”
“माली काका की बेटी रधिया भी अपने ससुराल चली गयी है”
“सासू माँ, बड़ी भाभी , मंझली भाभी, काकी, दीदी सभी दिन भर केवल गहने-कपडे, रसोई,बच्चों की ही बातें करती हैं”
“मैंने एक नयी कविता लिखी है सुनोगे ....”
अचानक घर आया हुआ राखाल ने अपनी बालिका वधु को कोने वाले कमरे के आदम कद दर्पण के सामने अकेले ऐसे बतियाते सुना तो उसका दिल भर आया.
“क्यूँ लख्खी मायके से आये इस दर्पण को ही अपनी कवितायेँ सुनाओगी, मुझे नहीं ? मैं भी तो तुम्हारा मनमीत हूँ.”
राखाल को यूं अचानक देख लख्खी आश्चर्य मिश्रित लाज से गड गड गई, उसकी चोरी पकड़ी जो गयी थी.


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