कुट्टी
अम्मा जी ने सुबह सुबह ही
फरमाइश कर दिया था कि आज उन्हें जलेबी खानी है. बहु ने
बहुत कोशिश किया कि वो रोटी सब्जी खा लें, पर वो जिद्द धरे बैठी रहीं कि
खायेंगी तो जलेबी ही वो भी रबड़ी के संग. धीरे धीरे दोपहर हो चला,पर उनका उपवास ना
टूटा, मेज पर धरी सुबह की रोटी-सब्जी उन्हें मुहं चिढ़ा रही थी. आम-तौर से कमरे से
बाहर नहीं निकलने वाली अम्माजी अपने छत वाले कमरे से निकली और धीरे धीरे सीढियां
उतर आंगन में चली गयीं. रमेश के बाबूजी को देखा बीच आँगन में सोये पड़ें हैं सफ़ेद
चादर ओढ़े. भीड़ से बेखबर अम्मा उनके सिरहाने जा बैठीं,
“तुमने ही सिखाया होगा रमेश
को कि मेरी बातें ना मानें”
“तुमने अपनी पसंद की बहु ला
कर कर धर दी मेरे माथे पर, तबसे जलेबी मांग रहीं हूँ, ये लुच्ची दे ही नहीं रही है”
“अब जवाब भी नहीं दे रहे हो
,जाओ मैं भी तुमसे बात नहीं करुँगी”, छोटी वाली कानी ऊँगली निकाल अम्माजी ने बाबूजी
की निर्जीव उँगली से छुआ कर कहा,
“जाओ कुट्टी, मैं आज खाना
भी नहीं खाऊँगी”
“अब जा रहे हो बाहर तो
जलेबी ले के ही आना वरना मैं कुट्टी नहीं तोडूंगी”
बुढ़ापा में इंसान कैसे दिग्भर्मित होता है और अपने मान -मनौवल को भूल नहीं पाता किसी परिस्थिति में ----ओह आपने मानव मनोविज्ञान को उकेर दिया है।
जवाब देंहटाएंहां,aparna जी मैंने बिलकुल यही भाव सोच लिखा है इसे . धन्यवाद .
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