बुधवार, 27 जनवरी 2016

खोटे सिक्के

खोटे सिक्के

आते जाते वह दिखता रहता था. कमर से गिरती-फिसलती जीन्स और छापेदार चुस्त टीशर्ट में उसे देखते ही रामाशीष जी का पारा गरम हो जाता. उसे देखते ही वे अपने बेटे का गुणगान शुरू कर देतें. परन्तु वह मुस्कुराता हुआ उनके हाथ का सामान ले लेता और तबियत और हाल-चाल पूछता घर तक जाता .सविता आंटी से एक गिलास पानी अवश्य पीता और घर में ताक-झाँक करते चले जाता. उसके जाने के बहुत देर बाद तक सुक्खी की आवारगी और निकम्मेपन को कोसतें रहते. बेटे की व्यस्तता के बारे में चिंतित होते और बहुत दिनों से उसकी फोन नहीं आई पर दोनों कुछ देर गुफ्तगू कर लेते. सविता दिन में कई बार बेटे की तस्वीर देखती और कल्पना करती कि इन दो सालों में वह कितना बदल गया होगा. फिर रामाशीष जी से छुप बेटी, शगुना की तस्वीर देख दो आंसू बहा देती जिसे वर्षों पहलें विजातीय से शादी का दंड उनके जीवन से निष्कासन के रूप में मिला था. ये उनकी दिनचर्या में शामिल था.
उसदिन भी वे थैला ले कहीं से लौट ही रहें थें कि चौराहे पर सुक्खी दिख गया, हिकारत भरी निगाहों से उन्होंने उस कामचोर को देखा कि तभी आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया.
आँख खुली तो खुद को अस्पताल के बेड पर पाया.
“लो दीदी रोज फोन से मुझे तंग कर कर इनकी देखभाल और सेवा करवाती थी, आज खुद करो. देखता हूँ तुम्हे कैसे भगातें हैं ”
चश्मा नहीं होने से उन्होंने धुंधले मिचमिचाती आँखों से देखा कि शगुना और सुक्खी दोनों खड़े हैं.बेजार बीमार वृद्ध रामाशीष जी की मानस पर पड़ी धुंध अब साफ़ हो चली थी, दो खरे सोने के सिक्के उनके सिरहाने खड़े थें जिन्हें वे खोटा समझ हमेशा दुत्कारतें रहें थें.

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